नाटक-एकाँकी >> ध्रुवस्वामिनी ध्रुवस्वामिनीजयशंकर प्रसाद
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ध्रुवस्वामिनी प्रसाद जी का अन्तिम नाटक है और उनके पूरे नाटक-साहित्य में एकदम अलग भी। इसमें न तो पहले नाटकों जैसी काव्यजनोचित भावुकता है और न ही संवादों की वैसी जटिलता। यह नाटक इस बात का प्रमाण है की प्रसादजी अपने अन्तिम समय में यथार्थवादी नाटक लेखन की तरफ मुड़ रहे थे। अपने जीवन्त संवादों और कसी हुई कथावस्तु के कारण यह नाटक अत्यन्त प्रभावशाली और मंचोपयोगी हो गया है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी शक्ति प्रसादजी के उस क्रान्तिकारी दृष्टिकोण में निहित है जो ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से प्रकट हुआ है। नारी केवल नर की अनुगता नहीं है। पुरुष यदि नपुंसक, व्यभिचारी और कायर है तो नारी उसके विरुद्ध विद्रोह भी कर सकती है, यह बात भारतीय समाज के लिए, कम-से-कम उस समय जब यह नाटक लिखा गया था, कल्पना से परे थी। लेकिन प्रसादजी ने ध्रुवस्वामिनी के रूप में उसी विद्रोहिणी नारी को चित्रित किया है जो साहस के साथ अपने स्वतंत्र अस्तित्व की घोषणा करती है। वस्तुतः ध्रुवस्वामिनी के चरित्र का यह पहलू ही इस नाटक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
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